Poems in Hindi translation
Translator: Anjani Kumar

  • Artwork by Vasvi Oza

    यह अकेली अंधेरी रात है

    एक बात आई है मन में
    जिसे करना ही है साझा तुमसे

    मेरे सिर के ऊपर आकाश नहीं है
    मेरे पैरों के नीचे धरती नहीं है
    मेरे हाथ-पैर बेड़ियों में बंधें हैं
    केवल ह्रदय  ही है जो आजाद है
    वही है जो सुनता है विचारों की आहट

    उन्होंने हमें हमारे दिल को बिखेरकर
    फेंक दिया है हजारों मील दूर, अलग
    लेकिन यह अंधेरी रात नहीं रोक सकती
    हमारे मिलने की चाह भरी रोशनी को

    इस अंधेरी रात के घने बादलों के पीछे
    छुपा हुआ है तकलीफ का टिमकता तारा
    मैं मुतमईन हूं
    तुम महसूस कर रही हो इसकी उपस्थिति।
    ००

  • Artwork by Jit Natta

    मैं नहीं मरूंगा

    जब मैंने मौत को मना किया
    मेरी बेड़ियां बिखरने लगीं

    मैं निकल गया हूं
    हरी हरी घास के फैली हुई भूमि में
    मैं घास की पत्तियों पर
    मुस्करा रहा हूं

    मेरी मुस्कराहट
    उनमें भर रही है असहनीयता
    मुझे फिर से बांध दिया जाता है सांकलों से

    एक बार फिर
    जब मैं अस्वीकार करता हूं मृत्यु-वरण
    और जीवन से थक रहा होता हूं
    बंधक छोड़ देते हैं मुझे

    मैं निकल जाता हूं
    हरितिमा में डूबी वादियों में
    जहां सूरज उठ रहा है ऊपर
    घास की झपक मारती पत्तियों पर
    मुस्करा रहा हूं

    मेरी अमिट मुस्कराहटों से बौखलाये
    वे फिर से बना लेते हैं मुझे बंधक

    मैं पूरे हठ के साथ
    कर देता हूं मरने से मना
    अफसोस! वे नहीं जानते
    मैं कैसे मरूंगा

    हां, मैं उगती हुई घास की आवाज को
    बहुत बहुत प्यार करता हूं।

    (अक्टूबर 1917 को याद करते हुए, 2 दिसम्बर 2017 को वसंता को भेजा गया।)
     ००

  • Artwork by Blaise Joseph

    अब हम खूब आजाद हैं 

    यह उस दिन की बात है
    जब रोहित वेमुला ने खुद को
    फांसी से झुला लिया
    और कहाः
    ‘मैं खुद को खुदी की अस्मिता तक
    नहीं गिरा सकता’ तब
    मेरे दिल से छूट गई धड़कनें

    यह उस दिन की बात है
    जब पेरुमल मुरूगन ने
    बतायाः ‘मेरे भीतर
    जो लेखक है, मर गया है’
    मैं उचाट-अनिद्रा से भर गया हूं

    यह उस दिन की बात है
    जब हंसदा सोवेंद्र शेखर ने
    निर्णय सुनायाः ‘आदिवासी
    अब नहीं थिरकेगें’
    मेरी मांसपेशियां ऐंठ गईं।

    यह उस दिन की बात है
    जब हादिया
    कोर्ट में अपनी जमीन पर खड़े हो
    मजबूर हो बोलीः ‘मुझे आजादी चाहिए’
    मैं इस जेल के खोखे में
    अपनी ही सांस से टूट गया हूं।
    ००

    (मंजीरा को 4 दिसम्बर 2017 को भेजा गया।)

  • artwork by Sofia Karim dedicated to Saibaba

    कोरेगांव

    जब एक प्रतिमा की मिट्टी
    दो सौ साल पहले
    असपृश्यों के छूने से बिखर गई थी
    तब ये साम्राज्ञी की बंदूकें नहीं थीं

    तुम नहीं समझ सकोगे
    कोरेगांव के भीम का अंतःस्थल

    प्यार, आजादी और स्वाधीनता
    यही था लाखों विद्रोहियों के मानस में
    वे गौरवशाली दिनों और आगामी सुबह की खातिर
    गा रहे थे दोनों सम्राटों का शोकगीत

    यह चीटीयों की सेना है
    यह शोषितों की सेना है
    यह प्यार करने वालों की सेना है
    यह मिट्टी में सने लोगों की सेना है
    यह अछूतों की सेना है

    तुम कभी नहीं समझ सकोगे
    कोरेगांव के भीम का अंतःस्थल

    जातियों, सम्प्रदायों, धर्मों और लतरियों
    सूंडियों को पालकर
    राष्ट्र कभी विकसित नहीं होता

    अतिसार से पीड़ित देश में
    देशभक्ति कभी नहीं टिकती

     तुम कभी नहीं समझ सकोगे
    कोरेगांव के भीम का अंतःस्थल।

  • Artwork by Sofia Karim dedicated to Saibaba

    तीर और धनुष से लैस

    प्राचीनतम समुदाय के हजारों हजार लोग
    जुलूस लेकर
    नाग नदी के तट पर आगे बढ़ते हुए
    कर रहे हैं रणभेरीः
    ‘तुम्हारे दशहरा पर
    किसने जलाया है हमारे विद्वान राजा को?

    सुबह सूरज के आलोक में
    अपनी चमचमाती सांवली भुजाओं
    और एकदम सफ्फाक सफेद पगड़ी से
    ढंक दिया है उन्होंने इस भगवा शहर को

    वे अपने ही पुरातन शहर के बीचो-बीच
    चल रहे हैं, उन्होंने
    फिर से दावा किया है अपने शहर पर
    और बिठा दिया है यहां अपना दार्शनिक राजा
    और दे दी है चुनौती अनैतिक देवताओं को
    जिन्होंने राजा की बहन से की थी बदसलूकी

    हमने स्वीकार कर लिया है
    तुम्हारे युद्ध का निमंत्रण
    तुम शुरू कर सकते हो कभी भी
    लेकिन-
    हमारे राजा की बहन के साथ तुम्हारी बदसलूकी
    और तुम्हारे देवता की पत्नी का अपहरण
    इस युद्ध का अब मसला नहीं रहा

    हम अपनी जमीन वापस लेंगे
    जंगल, पहाड़, पर्वत
    नदी, झरने, पेड़
    पौधे, जानवर, छोटे छोटे जीव
    और हमारे शहर
    जिस पर काबिज हो तुम सदियों से।
    ००

  • artwork by Sofia Karim dedicated to Saibaba

    दारुण रिक्तता

    मेरे मस्तिष्क में फैलती शून्यता ने
    इतिहास और स्मृतियों पर लगा दिया है विराम
    ब्लैकहोल सा फैलता जा रहा है यह
    खालीपन गुर्राते हुए
    दिखा रहा है दबोच-खाने वाले दांत।

    रिक्तता मस्तिष्क में फैलते हुए
    चबा रही है मेरी जिंदगी।

    चल रहा है उथल-पुथल हर तरफ
    राष्ट्र जा रहे हैं पीछे की ओर
    देश गिन रहे हैं हो रहे नरसंहारों को
    जनता मौत के तहखानों में जी रही है।

    दर्शन हो रहे हैं असफल
    अर्थव्यवस्थाएं ढह रही हैं
    नफरतें बढ़ रही हैं
    सभ्यताएं जुगनू की तरह
    निर्दयी बूटों तले
    टूट टूट कराहतें मर रही हैं।

    जेरूसलम, अमन का एक शहर
    अब्राहम धर्म की तीन धाराएं
    लड़ पड़ी हैं, बिखर रही हैं
    बेथलेहम घिसट-घिसट कर मर रहा है।

    नहीं, ईसा का इंतजार मत करो
    वह अब नहीं आ रहा
    पैगम्बर की खोज मंे मत लगो
    वह अब किसी कारवां में नहीं है।

    ना तो बुद्ध भ्रमण पर हैं
    न ही महावीर दिगम्बर बन घूम रहे हैं।

    अब जो व्यवस्था हो चुकी हैं जर्जर
    वहां से नहीं होगा पैदा कुछ भी नया
    कयामत का कोई सूराग नहीं है
    नहीं है कहीं इलहाम का किसी पर साया
    अभी तो-
    एक भयावह शून्य पैदा हुआ है
    दारुण भविष्य इंतजार में है।
    ००

  • Artwork by Sofia Karim dedicated to Saibaba

    जेल, यह ऊंची दीवारें नहीं हैं

    और न ही निर्जन कालकोठरी

    यह चाबियों की झन-झन नहीं है
    न ही निगरानियों की आवाज

    यह बेस्वाद भोजन नहीं है
    न ही निर्दय लाॅक-अॅप की समयावधि

    यह अलहदा में जी जा रही तकलीफें नहीं हैं
    और न ही मौत का डर है

    यह दिन का खालीपन नहीं है
    और न ही रात की रिक्तता

    दोस्तों, यह वह झूठ है
    जो न्याय के पवित्र फर्श पर आसीन है

    यह जन-शत्रुओं द्वारा मेरे ऊपर
    चस्पा की हुई झूठी अफवाहें नहीं हैं
    और न ही फौजदारी न्यायविधान की साजिशें हैं,
    ये सत्तसीनों की मनमानियां नहीं हैं

    मेरे दोस्त, जेल चैगुना बढ़ते जाते
    अन्याय के खिलाफ जो उठती हैं आवाजें
    उन आवाजों की चुप्पियां हैं
    कुछ चुप्पियां लादी हुई हैं
    कुछ खुद के हाथों से चस्पा हैं
    कुछ आदेशानुसार हैं
    और, बाकी खुदी का व्यवहार है

    यह सत्ता का डर नहीं है
    बल्कि बेबस लोगों की
    आवाज बनने वाली आवाजों में
    समाया हुआ डर है
    यह जीर्ण नैतिकता है
    यह एक सभ्यता की डींगें है
    यह हम सभी का स्मृति-ध्वंस है
    जहां एक आजाद समाज की खातिर
    संघर्षों का इतिहास है

    मेरे दोस्त, यही है यह सब
    जिसने हमारी दुनिया को वास्तविक,
    एक नीरव जेल मंे बदल डाला है

    (‘चुप्पी की संस्कृति’ नामक लेख को पढ़ने के बाद)
    ००

  • Artwork by Karen Haydock

    कब आएगा नया साल ?

    जेल की ऊंची दिवाल पर कहीं दूर
    घंटा-घड़ी चल रही है
    टिक टिक टिक ...
    एकांत में लीन मेरे मन पर
    खलल डालती हुई
    जबकि यह आधी रात है
    और मैं दिवाल की टेक लिए
    चुपचाप बैठा हूं और
    जोड़ रहा हूं
    इस एकाकी कैदखाने में
    नरसंहारों की संख्या
    जिनसे चलायी जा रही है
    लोकतंत्र की व्यवस्था

    मेरी छोटी सी पुतलियों के बीच
    बंद मेरी आंख में
    एक पूरा ब्रम्हाण्ड उपस्थित है
    मेरी इस विशाल
    तेज भागती आखों के आगे
    ग्रह, तारों से भरी हुई
    गैलेक्सियां गुजर रही हैं हौले हौले


    मेरे मस्तिष्क की
    एक छोटी सी कोशिका में
    यह जो समय है उसे अब
    इस घंटा-घड़ी से नहीं नापा जा सकता

    ओ मेरे प्यार
    दर्द घुमड़ मार रहा है
    कब आ रहा है नया साल
    ईसा मसीह को पुकारो
    सभी पैगम्बरों को बुलाकर पूछो
    ओ मेरे प्रिय, कब आएगा नया साल?

    लाखों लाख कंकाल
    बिखरे हुए हैं मेरे आसपास
    एशिया, अफ्रीका, मेडागास्कर
    आस्टेªलिया, न्यूजीलैंड
    उत्तर पूर्व, श्रीलंका
    लातिन अमेरीका, बस्तर
    इराक, सीरिया, कश्मीर
    फिलीस्तीन और दुनिया के हर कोने तक
    हजारों हजार नरसंहार

    परमाणु बमों के सरगना से
    उठा रहा है धुंआ
    उठता ही जा रहा है
    ऊपर, और ऊपर
    जैसे बढ़ता जा रहा है
    मेरी बांयी हाथ का दर्द

  • समय विस्फोट कर
    टूट रहा है खंड खंड
    समय गुरूत्व लिए जुटा रहा है
    दुनिया की सभी तकलीफों को
    उसने भेज दिया है बुलावा

    चलो, फिर से देखें जेरूसलम
    अब, बैथलिहेम कहा है?
    मेरे प्यार, ईसा मसीह को बुलाओ
    बुलाओ पैगम्बर मोहम्मद को
    समय की गणना फिर से करो
    एकदम शुरूआत से करो शुरू
    कब आ रहा है नया साल, मेरे प्रिय?

    मेरे मस्तिष्क में चिंतन
    कर रहा है उलट-पुलट
    धता बता रहा है
    जीवन के नियमों को
    और मौत को भी
    जिसे रच रखा है
    इस निहायत छोटे से कैदखाने की
    भद्दी सी मशीन ने

    मेरे इस कारावास में
    घुसते हुए आ रहे हैं विचार और चिंतन
    परमाणु युद्ध की सेनाओं की कतारों की तरह
    परमाणु नरसंहार को अंजाम देने

    प्रिय मित्र
    अन्यतम काले बादल इस ऋतु में भी
    चमक की महीन कौंध से भी रहेंगे वंचित
    लोकतंत्र की बारिशों का मौसम
    कब का खत्म हो चुका है, फिर भी
    क्यों कर रहे हो
    तुम बरसात का अंतहीन इंतजार?

    लोकतंत्र पैदा कर रहा है फासीवाद
    नाजीवाद, बहुमतवाद
    ये स्वयम्भूत स्वतःखंडित मानवी मशीने हैं
    लोकतंत्र की चाह में है कई कई नरसंहार
    जो प्यार करते हैं इस लोकतंत्र से
    इतिहास का अंत करते हैं

    लोकतंत्र परमाणु हथियारों का वमन करता है
    महान लोकतंत्र
    महान परमाणु हथियारों का वमन करता है
    चिंतन का अंत करता है!
    मेरी दोस्त, कब आएगा नया साल?